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Thursday, August 28, 2014

संवेदनहीनता

चित्र इन्टरनेट से साभार 









संवेदनहीनता


वहाँ का मंजर,

जब से देखा है,

आँखों में समुन्दर का,

बोझ लिए चलता हूँ। 


कभी देखा है उनके आसुओं को,

जो कभी छलके ही नहीं।

 कभी सुना है उनके चीखों को,

जो कभी निकले ही नहीं।


 जिसका जीने का मकसद,

एक निवाला हो।

 न तन पे कपड़ा,

न रहने का ठिकाना हो।


ऐसी स्थिति में,

किसी को देख कर,

मानवीय संवेदनाएं,

सहानुभूति जगाती हैं,

पर स्वार्थ की चादर ओढ़,

ज़िन्दगी आगे निकल जाती है।


संवेदनहीनता की आग में,

आँखों का समुन्दर सूख गया,

मस्त हूँ अपनी ज़िन्दगी में,

जब से वो मंजर पीछे छूट गया.

© राकेश कुमार श्रीवास्तव 


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