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Thursday, August 28, 2014

संवेदनहीनता

चित्र इन्टरनेट से साभार 









संवेदनहीनता


वहाँ का मंजर,

जब से देखा है,

आँखों में समुन्दर का,

बोझ लिए चलता हूँ। 


कभी देखा है उनके आसुओं को,

जो कभी छलके ही नहीं।

 कभी सुना है उनके चीखों को,

जो कभी निकले ही नहीं।


 जिसका जीने का मकसद,

एक निवाला हो।

 न तन पे कपड़ा,

न रहने का ठिकाना हो।


ऐसी स्थिति में,

किसी को देख कर,

मानवीय संवेदनाएं,

सहानुभूति जगाती हैं,

पर स्वार्थ की चादर ओढ़,

ज़िन्दगी आगे निकल जाती है।


संवेदनहीनता की आग में,

आँखों का समुन्दर सूख गया,

मस्त हूँ अपनी ज़िन्दगी में,

जब से वो मंजर पीछे छूट गया.

© राकेश कुमार श्रीवास्तव 


Thursday, August 21, 2014

समाजवाद


समाजवाद


तेरी मेरी चाहत का 

मेल नहीं हो सकता है,

तुम्हें चाहिए चाँद-सितारे,

मुझे रोटी में ही सुख दिखता है। 


तुम्हें चाहिए ऋतु- भादों, शरद, बसंत,

मुझे जून में पसीना बहाना अच्छा लगता है.

तुम ढूढ़ते हो सुख- धन-दौलत में,

मुझे माँ के साये में सच्चा सुख मिलता है। 


तुम्हें पसंद है छल-प्रपंच,

मैं मासूम मुस्कानों में बिक जाता हूँ। 

तुम्हें मुबारक हो महल-चौबारे,

जहाँ नींद नहीं तुम्हें आती है। 

मुझको मेरी झोपड़ी ही प्यारी,

जहाँ टाट पे ठाठ से सो जाता हूँ। 


तेरी चाहत, मेरी चाहत

एक तभी हो सकते है,

समाजवाद का फूल खिलेगा,

सब को समान अधिकार मिलेगा,

सब को शिक्षा, सब हो स्वस्थ,

सबको रोटी, कपड़ा और मकान मिलेगा। 


आओ ! ऐसा समाज बनाएं,

जिसमें किसी को किसी से बैर न होगा,

तेरी चाहत, मेरी चाहत में,

बुनियादी कोई फर्क न होगा। 

© राकेश कुमार श्रीवास्तव 



Wednesday, August 13, 2014

बैधनाथ धाम एवं वैशाली गणराज्य की यात्रा भाग-4 (अंतिम भाग)

बैधनाथ धाम एवं वैशाली गणराज्य की यात्रा

भाग-4 (अंतिम भाग)


भाग-3 पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें। 


विश्व का पहला गणराज्य लिच्छवि की राजधानी वैशाली के वैभवशाली इतिहास को कौन नहीं जानता है। इस स्थान का संबंध महात्मा बुद्ध, भगवान महावीर, चन्द्रगुप्त प्रथम, वैशाली की नगरवधू या राज नर्तकी आदि से है। भारत के वृज्जि गणराज्य की वैशाली नगरी के निकट कुण्डग्राम में पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला के यहाँ 599 . पूर्व जैन तीर्थंकर महावीर का जन्म हुआ। वैशाली, मेरे गृह नगर मुजफ्फरपुर से महज़ 32 कि.मी. एवं पटना से 60 कि. मी. पर स्थित है। अतः हमलोग दोपहर का खाना खाकर निजी वाहन से वैशाली दर्शन के लिए निकल पड़े। जापान सरकार के सहयोग से निर्मित सड़कों पर सफ़र आरामदायक रहा परन्तु जून की गर्मी ने स्थानीय भ्रमण को थोडा कष्टकारक बना रहा था। हमलोगों का पहला पड़ाव निप्पोंजान म्योहोजी और राजगीर बुद्ध विहार सोसाईटी के सहयोग से बनी विश्व शांति स्तूप था। यह सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक खुला रहता है। शांत वातावरण और सुंदर बागवानी के बीच बना शांति स्तूप वाकई शांति का संदेश देता प्रतीत हो रहा था। द्वितीय विश्व-युद्ध के अंतिम चरण में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर परमाणु बम के हमलों से आहत हो प्रेम और शांति का उपदेश देने हेतु विश्व-शांति के प्रवर्तक एवं निप्पोंजान म्योहोजीके अध्यक्ष निचिदात्सु फुजीई गुरूजी ने सद्धर्भ पुण्डरीक सूत्र (लोटस सूत्र) कि शिक्षा के अनुरूप पुरे विश्व में विश्व-शांति स्तूप का निर्माण करवाया।  इन्हीं के 99 वें जन्मदिवस के शुभ अवसर पर 20 अक्टूबर 1983 को वैशाली के इस विश्व-शांति स्तूप का शिलान्यास हुआ। गौतम बुद्ध के अवशेषों को स्तूप के नींव एवं कंगूरे को सुशोभित किया गया। बुद्ध की चार प्रतिमायें और कंगूरा का निर्माण पूरी के सुदर्शन साह (पदम श्री) एवं धर्म-चक्र एवं शेरों का निर्माण पटना के श्री लक्ष्मी पंडित ने फाईबर ग्लास से किया एवं उस पर सोने कि पालिश की हुई है।

शांति स्तूप के बगल में निप्पोंजान म्योहोजी (जापानी बुद्ध मंदिर) का दर्शन कर पुरातत्व संग्रहालय, वैशाली घूमने गए. यह वैशाली के प्राचीन टीलों के उत्खनन् से प्राप्त पुरावशेषों का संग्रह है। यहाँ छठी शताब्दी ई.पू. से बारहवीं शताब्दी ई.पू. की प्रस्तर प्रतिमायें, मृण्मय मानव एवं पशु-पक्षी की आकृतियाँ, हाथी दांत, अस्थि और सीप की बनी वस्तुएं, आभूषण, मुद्रायें एवं मुद्रा छाप, रजत एवं कांस्य के पिटे और ढले सिक्के प्रदर्शित हैं. यहाँ से विश्व-शांति स्तूप बहुत ही मनमोहक लगता है।

इसके बाद हमलोग उत्खनित अवशेष, कोल्हुआ गए। इसके परिसर में प्रवेश करते ही अपने आप को इतिहास में मौजूद होने का आभास मिलता है। इस स्थल को सुंदर पार्क में तब्दील कर दिया गया है. यहाँ पर भगवान बुद्ध ने अनेक वर्षावास व्यतीत किए। भगवान बुद्ध ने आखरी धर्मौपदेश यही पर दिया  और तीन महीने पूर्व अपने शीघ्र संभावित परिनिर्वाण की घोषणा भी यहीं पर की। भगवान बुद्ध ने यहीं पर पहली बार भिक्षुणियों को संघ में प्रवेश की अनुमति दी एवं वैशाली की अभिमानी राजनर्तकी आम्रपाली को एक विनम्र भिक्षुणी में परिवर्तित किया। भगवान बुद्ध के जीवन में आठ अनोखी घटनाओं  में से बंदरों द्वारा बुद्ध को मधु अर्पण यहीं पर घटित हुई थी और यहाँ का मुख्य स्तूप इसी घटना का प्रतीक है। ईटों से निर्मित यह स्तूप मूलतः मौर्य काल का है। उत्खननों के परिणाम स्वरुप कूटागारशाला, स्वस्तिकाकार विहार, पक्का जलाशय, बहुसंख्य मनौती स्तूप एवं लघु मंदिर प्रकाश में आए। इसके अतिरिक्त आंशिक रूप से दबे अशोक स्तम्भ एवं मुख्य स्तूप के अधोभाग को भी अनावृत किया गया। सम्राट अशोक द्वारा बनाए गए प्रारंभिक स्तंभों में से एक जिस पर उनका कोई अभिलेख नहीं है, बलुए पत्थर का लगभग 11 मी. ऊँचा चमकदार एक एकाश्मक स्तम्भ है. जिसके शीर्ष पर एक सिंह सुशोभित है। कूटागारशाला में बुद्ध के वर्षावास के दौरान प्रवास करते थे। स्वस्तिकाकार विहार संभवतः भिक्षुणियों के लिए बनाया गया था। इसमें शौचालय का भी प्रावधान था। सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1861-62 में चीनी उल्लेख के आधार पर सीमित उत्खनन् से मिले साक्ष्यों से प्राचीन वैशाली की पहचान की। विगत वर्षों में पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा अवशेषों के आधार पर एतिहासिक गाथाओं में वर्णित महान परम्पराओं से परिपूर्ण छठी शताब्दी ई.पू. लिच्छवी गणराज्य की राजधानी वैशाली थी। चौबीसवें जैन तीर्थकर भगवान महावीर की जन्म-स्थली भी वैशाली ही है। चौथी शताब्दी ई. के प्रारंभ में लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी का विवाह चन्द्रगुप्त प्रथम से हुआ। गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ-साथ वैशाली का वैभव समाप्त हो गया। 

Wednesday, August 6, 2014

बैधनाथ धाम एवं वैशाली गणराज्य की यात्रा, भाग-3

बैधनाथ धाम एवं वैशाली गणराज्य की यात्रा

भाग-3

बैधनाथ धाम की कथा 

भाग-1 पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें। 

श्री वैधनाथ धाम की कथा- पार्वती जी के कहने पर भगवान शंकर जी ने सोने का महल बनवाया और गृह-प्रवेश के लिए रावण के पिता विश्वश्रवा  को बुलाया।  विश्वश्रवा ने शंकर जी के कहने पर दक्षिणा स्वरुप सोने का महल ही मांग लिया। भगवान शंकर ने दक्षिणा में सोने का महल विश्वश्रवा को दे दिया जो बाद में लंका के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पार्वती जी ने विश्वश्रवा को श्राप दिया “ हे लालची ब्राह्मण ! तेरी आनेवाली पीढ़ी इस महल का उपयोग नहीं कर सकेगी, तुम्हारा सारा वंश एक साथ नष्ट हो जाएगा। "   इसी श्राप को लेकर चिंतित रहने वाली रावण की माँ कैकसी ने रावण से कहा कि यदि भगवान शंकर लंका में नहीं आए तो हम सब का विनाश निश्चित है। यह सुनकर रावण भगवान शंकर को पाने के लिए कैलाश पर्वत पर जाकर घोर तप किया। उसने एक-एक कर अपने नौ सिर काट कर हवन कुंड में चढ़ा दिया। जब वह दसवां सिर चढाने वाला था तो भगवान शंकर प्रकट हुए। उन्होंने उसके चढ़ाये हुए नौ सिरों को यथावत् जोड़ कर वर माँगने को कहा। तब रावण ने भगवान शंकर से कहा कि यदि आप मुझ से प्रसन्न है तो आप मेरी नगरी लंका चल कर रहें। भगवान शंकर ने कहा कि मेरे बारह ज्योतिर्लिंग है। तुम मुझे जिस रूप में ले जाना चाहो ले जा सकते हो और इस लिंग को रास्ते में नीचे मत रखना नहीं तो मैं वहीँ स्थापित हो जाऊँगा। रावण ने जब माता पार्वती द्वारा पूजित आत्मलिंग को चुना तो पार्वती जी ने आचमन कर उसे उठाने को कहा। आचमन कर रावण आत्मलिंग को ले कर पुष्पक विमान से लंका के लिए चल पड़ा। रास्ते में आचमन के प्रभाव से उसे लघुशंका त्यागने कि इच्छा हुई। वहाँ खड़े ग्वाला को आत्मलिंग पकड़ा कर लघुशंका निवारण हेतु कुछ दूर चला गया। बहुत इंतज़ार करने के बाद ग्वाला, आत्मलिंग को धरती पर रख कर चला गया। जब रावण आया तो आत्मलिंग को स्थापित देख उसे उठाने की कोशिश की परन्तु भगवान शिव टस से मस नहीं हुए और रावण को बैरंग लंका लौटना पड़ा। देवघर ही वह स्थान है जहाँ आत्मलिंग स्थापित है।
  आत्मलिंग, माघेश्वरलिंग, कामदलिंग या कामनालिंग, रावणेश्वर महादेव, श्री बैधनाथ लिंग, मर्ग, तत्पुरुष और वामदेव या वैजुनाथ ये बाबा बैधनाथ के आठ नाम है. यहाँ सती का ह्रदय गिरा था और चिता बनाकर अंतिम संस्कार हुआ अतः बाबा बैधनाथ मंदिर शक्ति पीठ भी है। इसलिए इस चिताभूमि को हार्द्रपीठ बैधनाथ भी कहते है। मंदिर के भीतरी प्रकोष्ठ में शिवलिंग के उपर एक चंदोवा लगा है जिससे बूंद-बूंद जल गिरता रहता जो चातुपाश्र्व आकार के अष्टदल कमल के बीच चंद्रकांता मणि से निकलता है। समझा जाता है कि यह मणि कुबेर की राजधानी अलकापुरी में थी जिसे रावण ने लाकर मंदिर में लगवाया था। 



पूर्वी, पश्चिमी एवं उत्तरी दिशा से मंदिर में प्रवेश करने के लिए तीन प्रवेश द्वार बने हैं। मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर दिशा में है इसे सिंह द्वार भी कहते है। जब सिंह द्वार से प्रवेश करेंगे तो बायीं तरफ रावण द्वारा निर्मित चंद्रूप कुआं है। इससे आगे बढ़ने पर बायीं तरफ पार्वती जी का मंदिर है जिसके अन्दर दो प्रतिमाएं हैं, बायीं तरफ पार्वती जी एवं दायीं तरफ दुर्गा जी। इनका मुख मध्य में बने बाबा बैधनाथ मंदिर की तरफ है। 
इन दोनो मंदिरों के शिखर लाल धागे से जुड़े रहते हैं। लाल धागा शिव-शक्ति के वैवाहिक संबंध का घोतक है और इस संबंध को अविच्छिन्न बनाए रखने हेतु ही लाल धागा बांधने की यह परम्परा चली आ रही है। 
 शादीशुदा जोड़ा दोनों मंदिरों के शिखर को लाल धागे से जोड़ते है जिसे गठबंधन भी कहते है। इसका मूलभाव यह है कि जैसे शिव-पार्वती का संबंध है वैसा ही संबंध हम दोनों पति-पत्नी में हो।  इन दो मंदिरों के अलावा 21 अन्य मंदिर है जो मंदिर के प्रांगन को भव्य बनाते है। सिंह द्वार से बाहर लगभग 50 मी. उत्तर निकलने पर शिव गंगा जलाशय है जिसका उद्भव रावण के लघुशंका निवारण के बाद हाथ धोने के लिए धरती पर रावण के मुक्का मारने से हुआ। 


समुद्र मंथन का कार्य श्रावण माह में हुआ था और उससे निकले हलाहल का पान भगवान शंकर ने किया। विष के प्रभाव को कम करने के लिए भगवान शंकर ने चन्द्रमा को सर पर धारण किया और विष के जलन को कम करने के लिए सभी देवता, बाबा भोलेनाथ को गंगा जल चढ़ाने लगे। तभी से भक्तगण शिवलिंग पर जल चढ़ाते है और विशेष कर श्रावण माह में शिव भक्त कांवड़ में गंगाजल लेकर नंगे पाँव चलकर बाबा भोलेनाथ को जल चढ़ाते है. देवघर से 105 कि.मी. उत्तर सुल्तानगंज में गंगा उत्तरायण होकर बहती है. वही से भक्त कांवड़ में गंगाजल लेकर नंगे पाँव बाबा बैधनाथ को जल चढ़ाने आते हैं। 
बारह ज्योतिर्लिंग है और प्रत्येक ज्योतिर्लिंग की पूजा से अलग-अलग कार्य सिद्ध होते है जैसे मोक्ष के लिए काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग की  पूजा, मरण,मोहन उच्चाटन से मुक्ति के लिए उज्जैन के महाकाल ज्योतिर्लिंग, शांति और शीतलता के लिए सौराष्ट्र में स्थित सोमनाथ ज्योतिर्लिंग आदि. परन्तु सभी मनोकामनाओं की पूर्ति , देवघर स्थित बैधनाथ ज्योतिर्लिंग की पूजा से होती है.



बम-बम भोले आप सभी पर कृपा करें.

© राकेश कुमार श्रीवास्तव