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Wednesday, December 17, 2014

शहर

          





            

            शहर

पूर्णिमा की रात, फिर भी अँधेरा है यहाँ,
काले धुओं के पीछे, चाँद छुप जाता है यहाँ। 

अपने शहर को अब, मैं पहचानता नहीं,
पेड़-पौधों की जगह, अब ईट-गारा है यहाँ

जिस घर को ढूंढता, आया हूँ इतनी दूर से,
वो तो मिला नहीं, शॉपिंग मॉल अब है यहाँ

शहर के जहरीले धुओं में, सभी रिश्तेदारी मर गए,
रिश्तेदारी के नाम पर, पत्नी-बच्चे अब है यहाँ

मेरे आँगन में कभी, चाँद-सूरज आता नहीं,
रोशनी का नामों-निशां नहीं है, अँधेरा पसरा है यहाँ

चंद लोगों के एशो-आराम जुटाने के वास्ते,
पूरे शहर के लोग, काम पर जुट जाते हैं यहाँ

आँख मूंद कर इस शहर परविश्वास न करना तुम “राही”,
आस्तीन के सांप अक्सर पाये जाते हैं यहाँ


- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही "

Wednesday, December 3, 2014

बेईमान

               
  
               













                 बेईमान

भ्रष्टाचार से लड़ने चले वो , खुद ही भ्रष्ट हो गए,
पहले वे भी आम जन थे, अब वो शासक हो गए। 

उनके रग-रग में बसी है, बला की हैवानियत
भीड़ के आगे जब भी आए, वो सफेदपोश हो गए। 

विश्वास करके अपनी अस्मत, जिसने उनको सौप दी,
उन सभी के  सम्मान अब सरेआम, तार-तार हो गए। 

खैरात में जो मिली थी, ग़रीबों में बांटने के वास्ते,
उसी खैरात को हड़प कर, वो मालामाल हो गए। 

जाति-धर्म के नाम पर, जो बाँटते है आवाम को,
ग़रीबों पर शासन करे और अमीरों के मित्र हो गए। 

दोनों की तक़रीर सुन कर, हिन्दू-मुस्लिम लड़ मरे,
दोनों गले अब मिल रहें हैं, वे रिश्तेदार हो गए। 

सबकी ज़मीर मर गई, सब कर रहे बकवास है,
जिसको जब मौका मिला, वो बेईमान हो गए। 

क्यों ढूँढते हो “राही”, देशभक्तों को इस दौर में,
मातृभूमि पर मर मिटने वाले सभी, स्वर्गवासी हो गए। 
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव  "राही "