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Thursday, August 27, 2015

बैरी सावन











    बैरी सावन


सावन में सिमटी रहती हूँ,
सावन में गुमसुम रहती हूँ। 

जब से गए है परदेश सजनवा,
उनसे मिलने की सपने बुनती हूँ। 

जब बारिश आग लगाती सावन में,
आँगन में भीग, चुपचाप रो लेती हूँ। 

जब भी उनसे हो फोन पर बातें,
दिल की बातें नहीं कह पाती हूँ। 

भरा-पूरा है घर-आँगन मेरा फिर भी,
जल बिन मछली जैसी तड़प रही हूँ। 

जब से खबर मिली है उनके आने की
न चाहते हुए भी मैं थोड़ी-सी बदल गई हूँ। 

"राही”, जाने-अनजाने हो जाती है गलती मुझसे
देवर, सास और ननद की ताने सुनती रहती हूँ। 

सावन में सिमटी रहती हूँ,

सावन में गुमसुम रहती हूँ। 

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

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