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Thursday, December 8, 2016

चार पहर की ज़िन्दगी







चार पहर की ज़िन्दगी 

अलस भोर में बचपन बिता,
नहीं थी किसी तरह की चिंता,
अपने सुंदर नटखट स्वभाव से,
सभी का दिल था मैंने जीता। 

समय बिता छल-कपट अपनाया,
माँ-बाप ने मुझे बहुत समझाया,
कच्ची धुप सी थी मेरी तरुणाई
था किशोर कुछ समझ ना पाया। 

लालच-लोभ के साथ आई जवानी,
मैंने किसी से कभी हार ना मानी,
खड़ी धुप में मैंने पसीना बहाया 
लक्ष्य पाने में करता था मनमानी। 

काम-क्रोध का ऐसा चस्का जागा,
धन-दौलत के पीछे-पीछे मैं भागा,
जीवन का पल हो शाम सुहानी तो 
प्रौढ़ उम्र में ईमान को भी त्यागा। 

नौ-रस के चासनी में ऐसा डुबा,
पांच-ज्ञानेन्द्रियाँ थी मेरी महबूबा,
गोधुली सी थी नशा जीवन का 
फिर भी शांति का नहीं मिला तजुर्बा। 

आँख नाक-कान अब काम नहीं करता,
मन तो काम-जिह्वा में फंसा ही रहता,
अमावस्या रात सी है बुढापे की ज़िन्दगी 
भोग-विलास से फिर भी जी नहीं भरता। 


इच्छा है अब मैं प्रभु शरण में जाऊं,
भजन-कीर्तन अब कर नहीं पाऊं,
समय रहते कुछ समझ ना पाया 
अंत समय है मैं बहुत पछताऊं।

पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ अब कमजोर हुई है,
एक-एक करके सब साथ छोड़ गई है,
जान गया इस रात की अब सुबह नहीं
अब क्या होगा अब उम्र निकल गई है।  

अलस- अकर्मण्य, सुस्त

- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"

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