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Wednesday, March 8, 2017

पत्नी पुराण

पाठकों ! मेरी पहली कहानी सास पुराण आप सभी ने पढ़ी और सराही जिसके लिए आप सबको मेरी तरफ से धन्यवाद। साथियों! आप सब बार-बार मुझसे अनुरोध करते रहे कि सास-पुराण के बाद पत्नी-पुराण भी लिखूँ। पत्नी-पुराण की पाण्डुलिपि तो मैंने आपके कहने पर तैयार कर ली थी, परन्तु किसी पति में इतना साहस तो है कि वह अपनी पत्नी के बारे में कुछ लिख ले  और उस कृति को नजरबंद कर  दे, किन्तु  उसे  प्रकाशित कर दे, इतनी हिम्मत कहाँ? पति तो बेचारा एक निरीह प्राणी है, जो शादी के बाद घर में केवल सुनता है, बोलता कुछ नहीं है। इसलिए आप सभी, पतियों को घर  के बाहर, बहस करते, डींगे मारते, बिन पूछे राय देते तो देखा  ही होगा और ऐसे पतियों को भी देखा  होगा, जो राह चलते बड़बड़ाते भी हैं। आप सब से अनुरोध है कि ऐसे व्यक्ति को आपकी सहानभूति की अत्यंत आवश्यकता है परन्तु जरा संभल  के, हो सकता  है कि उनकी मानसिक स्थिति ठीक न हो और आप से  ही उलझ पड़े। तो आइए, फिर से बजरंग बली  का नाम लेते हुए मैं अपना पत्नी पुराण शुरू करता हूँ। मेरी शादी किस तरह से हुई यह तो आपने सास पुराण में तो पढ़ ही लिया।
सास पुराण पढने के लिए नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करें :-
http://rakeshkirachanay.blogspot.in/2012/02/blog-post.html


अब आगे .........

मेरी पत्नी बहुत सुंदर एवं सुशील थी और वाणी मधुर जैसे की प्रत्येक पति को लगता है। मेरी पत्नी का व्यवहार शुरू में तो सभी के साथ मधुर था, परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया उसने अपना पहला निशाना मेरी माँ को बनाया, फिर क्या था? मेरा घर युद्ध के मैदान में बदल गया। एक तरफ मेरी माँ एवं मेरे भाई-बहन तो दूसरी तरफ मेरी पत्नी।

मेरी सरकारी नौकरी का कार्यस्थल घर से दूर था और साल में दो ही बार घर जा पाता था। शादी के शुरूआती दिनों में तो घर जाने के नाम पर रौनक आ जाती थी, क्यूंकि घर पहुँचते ही माँ, बहू का गुणगान करती और उनकी बहू मेरी सेवा! फिर क्या था? दोनों हाथो में लड्डू अर्थात शादी का लड्डू जिसे खा कर मैं बहुत खुश था। इन्हीं खुशियों के बीच मुझे एक पुत्री-रत्न प्राप्ति की ख़ुशी मिली।

मेरी माँ भी बहुत खुश थी और हो भी क्यों ना, किसी को पराधीन रखने का जो असीम सुख स्त्रियों को मिलता है, वह सभी सुखों में सर्वोपरी है। यही कारण है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी सास-बहुओं के बीच ताल-मेल कभी बैठ नहीं पाता। सामान्यतः सास अपनी बहू को पराधीन रखती है, परन्तु कहीं-कहीं स्थिति विपरीत भी हो जाती है अर्थात बहू दबंग हो तो सास को पराधीन बना लेती है। खैर ! साधारणतः जब किसी स्त्री के बेटे की शादी होती है तो बहू को बेटी बनाने का सपना देखती है, परन्तु वह उसे अपने अनुशासन में रखना चाहती है। पर क्या किसी की बेटी, किसी के अनुशासन में रह सकती है? अरे ! बेटी तो लक्ष्मी होती है और लक्ष्मी तो चंचल होती है, लक्ष्मी किसी के अधीन नहीं रह सकती, वो तो उसी के पास रहेगी, जो उसको सर पर चढ़ा कर रखेगा। इसलिए स्त्री या तो पिता के साथ ख़ुशी से रहती है या पति के साथ।

तो, जब तक मेरी पत्नी को मेरे घर वालों ने सर चढ़ा कर रखा तब तक तो सब ठीक था , परन्तु जैसे-जैसे अनुशासन में रखने के लिए टोका-टाकी शुरू हुई, वैसे ही सास-बहू का तालमेल  बिगड़ा और मेरे शादी के लड्डू खा कर पछताने के दिन शुरू हो गए। अब मुझे घर जाने की ख़ुशी नहीं रहती, बल्कि घर जाने के नाम से ही पसीने आ जाते।किसी तरह घर पहुंचता, तो माँ अपने बहू की करतूतों से दिनभर अवगत कराती और रात  को खाना खाकर सोने जाता तो पत्नी रातभर अपनी सफाई देने में बिता देती। मैं तो बेचारा उल्लू की भाँति ऑंखें गोल-गोल घुमाकर दोनों की बातें सुनता रहता।

जब आपके अपनों के बीच युद्ध हो, तो आप तटस्थ नहीं रह सकते और अगर मैं  केवल किसी एक के पक्ष में दलील देता तो यकीन मानिए या तो मेरा  सारा दिन ख़राब होता या सारी रात। तो,  मैं यह खतरा मोल नहीं लेना चाहता था। अतः दोनों की बातों में हाँ-में-हाँ मिलाने लगा। पर मैं जानता था कि यह कोई स्थाई समाधान नहीं है। इसी उधेड़-बुन में मैंने बीमारी का बहाना बना कर घर आना-जाना बंद कर दिया। लेकिन क्या परिस्थितियों से निपटने के लिए पलायनवादी सोच कभी काम आती है, जो मेरे काम आती। अतः ऐसी स्थिति से निपटने के लिए मैंने पत्नी को समझाने से अच्छा, माँ को ही समझाना अच्छा समझा और हिम्मत करके घर गया। घर पहुँचते ही माँ ने मेरी तबियत के बारे में पूछा।

मैंने माँ से कहा – माँ! तबियत तो अब ठीक है परन्तु कमजोरी महसूस करता हूँ। बाहर का खाना खाने का मन नहीं करता।

माँ ने कहा – तो बहु को ले जा। मैं तो तुम्हारे भाई-बहन की पढ़ाई एवं पिता जी की नौकरी के कारण, तुम्हारे साथ जा नहीं सकती। 

इतना सुनते ही, मेरी बिन माँगे मुराद पूरी हो गई। मैं अपनी पत्नी को अपने साथ ले आया। पत्नी जी अपने नई गृहस्थी को संभालने में लग गई और मेरी माता जी अपने छोटी बहू को ढूढ़ने में। अब मेरे दोनों हाथों में लड्डू और सर कड़ाही में था। उधर माँ अपनी छोटी बहु के लिए योग्य लड़की की बातें मुझको बता कर खुश होती और इधर मेरी पत्नी अपने स्वयं की  गृहस्थी को सजाने एवं नई सहेलियाँ बनाने में खुश थी। मैं भी उसकी सेवा एवं ख़ुशी को देख निहाल हो रहा था, परन्तु यह सिलसिला ज्यादा दिन नहीं चला। शुरू में तो बैंक में रखे पैसों से गृहस्थी चली, परन्तु मुझे लगने लगा कि मासिक वेतन से घर खर्च चलाना मुश्किल है, तो इस पर मैंने पत्नी को टोकना शुरू किया, जैसे ही मैंने अपनी पत्नी को टोकना शुरू किया, वो तो नागिन की तरह फुफकारने लगी और कहने लगी – देखो जी ! मुझे इस तरह की टोका-टाकी पसंद नहीं है, क्या मैंने गहने गढ़वा लिए? जो खर्च हो रहा है, वह केवल राशन पर ही हो रहा है। ना मैंने अपने मायके में खाने-पीने में कटौती देखी है और ना ही मुझसे खाने-पीने के समान में कटौती  होती है।

ये सिलसिला जो चला वो कभी रुका ही नहीं। मैं इन सब से बचने के लिए ऑफिस से आता और चुपचाप अपने साहित्यिक लेखन में जुट जाता परन्तु उसे मेरा यह पलायनवादी तरीका पसंद नहीं आया। कुछ दिन तू-तू-मैं-मैं होती रही और अंत में मुझे ही उसकी  हाँ में हाँ मिलाकर अपना हथियार डालना पड़ा और मैंने लाफिंग बुद्धा का शांति वाला चोंगा पहन लिया। आए दिन किसी न किसी बात पर मुझको लड़ने के लिए उकसाती परन्तु मैंने अपनी शांति का चोंगा नहीं उतारा।

ऐसे तो मैं लड़के और लड़की में भेद नहीं करता परन्तु लड़का ना होने की कसक इस प्रौढ़ा अवस्था में ज्यादा महसूस हो रही थी। क्योंकि मेरे जिन मित्रों के पुत्र थे, वे अब आनंद में थे। क्योंकि उनकी पत्नियों को अपने-अपने  बहू और बेटों से फुर्सत नहीं थी, जो अपने पति पर चिल्लाये। मैं इस उम्र में भी अपनी पत्नी से प्रताड़ित होता रहा। पहले मैं काल्पनिक सास के डर से नींद में चिल्लाता था, अब स्वप्न में पत्नी श्री के भय से, नींद में भी चीख नहीं निकल पाती। मैं बिस्तर पर छटपटाता रहता हूँ । ऑंखें तभी खुलती हैं जब मेरी धर्मपत्नी साक्षात् दुर्गा का रूप लिए हाथ में झाड़ू लेकर झकझोर कर बोलती है – क्या बंदरों की तरह बिस्तर पर पलटी मार रहे हो?

खैर ! समय बीतता गया और बेटी की शादी के लिए मेरी दौड़-भाग शुरू हो गई। लड़की की शादी एक अच्छे परिवार में तय हो गई। शादी की तैयारी शुरू करनी थी, तभी मेरे दोनों हाथों और पैरों में लकवा मार गया और मैं व्हील चेयर पर आ गया। बेटी की शादी उसने, अपने बचत किए हुए रुपयों एवं गहनों को बेच कर की। मेरी नौकरी चली गई परन्तु अनुकम्पा के आधार पर मेरी पत्नी को नौकरी मिल गई। सदा चहकने वाली स्त्री, अब कर्तव्यों के बोझ तले गंभीर हो गई। मुझसे सदा लड़ने को उत्सुक, अब मेरी सेवा में तल्लीन हो गई। अब वह दफ्तर के काम के साथ-साथ घर की सारी ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर ले ली और मेरी शारीरिक सेवा को उसने पूजा और आराधना का रूप दे दिया।  उसने बड़े ही संयम से अपने सभी कार्यों को अंजाम दिया।

मैंने अक्सर देखा है कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्रियों की दिनचर्या अन्य स्त्रियों की तुलना में बहुत ही कठिन होती है। जहाँ मुश्किल घड़ी में पुरुष धैर्य खो देता है वहीँ स्त्रियाँ दुर्गा बन परिस्थितियों का सामना करती हैं।

मेरी बेबसी के आसुंओं को देख, वह अक्सर मुझे सांत्वना देती - " देखना! तुम एक दिन चलने-फिरने लगोगे, तो फिर, मैं तुम से झगड़ा करुँगी।"

एक दिन मैंने उससे पूछ लिया – "तो क्या तुमको मुझसे हमेशा झगड़ना ही है ?"

उसने कहा – “हाँ! झगड़ना है, आखिर मैं भी एक इंसान हूँ। मुझे तुम्हारी किसी बात पर गुस्सा आ जाए तो तुमसे लड़ाई ना करूँ तो किससे करूँ। तुम तो जानते ही हो कि स्त्रियों को ता-उम्र  कितनी टोका-टाकी होती है , पर अपने आक्रोश को स्त्री कहाँ प्रकट करें। अगर कोई प्यार करने वाला पति उसे मिले, तो कभी-कभी अपने दबे हुए आक्रोश को अपने पति पर निकाल भी ले, तो क्या यह गुनाह है? आखिर वहीँ स्त्री अपने पति को सदैव प्यार करती है तो वह पुरुष को दिखाई नहीं देता, परन्तु कभी-कभी के झगड़ों को माफ़ करने की जगह, पुरुष सदैव के लिए उसे दिल में रख कर मौन धारण कर ले और पत्नी के प्यार को ना समझे तो इसमें स्त्रियों का क्या दोष?”

आज यह शब्द हथौड़े की तरह मस्तिष्क में गूंज रहें हैं। मैंने कितने ख़ुशी के स्वर्णिम अवसर खो दिए। मैं आज बहुत दिनों के बाद अपनी पत्नी श्री की तस्वीर के सामने बैठा, पत्नी पुराण  पाण्डुलिपि  को पढ़ रहा हूँ। उनकी अथक मेहनत और विश्वास से मैं स्वस्थ हो गया परन्तु मेरे देखभाल के चक्कर में वो अपनी स्वास्थ का ख्याल नहीं रख सकीं  और समय से पहले ही और मेरे ठीक होने के बाद उनका निधन हो गया।


"हेलमेट और पत्नी दोनों का स्वभाव एक जैसा है... सिर पर बिठा कर रखो तो जान बची रहेगी।
पतियों को समर्पित।"


- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"


            

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