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Wednesday, April 5, 2017

वाक्यांश – संन्यास


वाक्यांश – संन्यास 

तबादला होने के कारण इस शहर में आना पड़ा और जॉगर’स पार्क में मेरा पहला दिन था। मैं कान में ईअर फोन लगाकर धीरे-धीरे दौड़ रहा था, तभी किसी ने पीछे से कंधा थपथपाया। मैं जब पीछे मुड़ा तो एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति को मुस्कुराते हुए देखा।

उसने हाथ बढ़ाते हुए कहा – “ मैं रवि कान्त शास्त्री, ऐसे दोस्त मुझे देव बुलाते है।”
मैंने भी हाथ मिलाते हुए कहा – “हाए देव साहब ! मैं श्रीवास्तव।”
देव साहब ने कहा – “नहीं, नहीं श्रीवास्तव ! आप मुझे सिर्फ देव ही बुलाएं। उम्मीद करता हूँ कि आप जॉगर’स पार्क में नियमित आयेंगे और इस तरह मेरे दोस्तों के फ़ेहरिस्त में शुमार हो जाएँगे।”

इस संक्षिप्त परिचय से मेरा उनसे मुलाक़ात का सिलसिला चल पड़ा और उस मुलाक़ात के दौरान जीवन के हरेक पहलू पर उनसे और उनके दोस्तों से चर्चा होती रहती। दोस्ती इतनी बढ़ गई थी कि जाड़ो के दिनों में सुबह के अंधेरो में भी मेरी पदचाप सुनकर वे मुझे पुकार लेते थे। 

देव के बारे में मैं कह सकता हूँ कि 65 वर्ष के उम्र में भी वे अपने पहनावे पर विशेष ध्यान देते हैं। वे बहुत ही जहीन, हंसमुख एवं मिलनसार व्यक्तित्व के मालिक भी हैं। 

इधर कई दिनों से उनसे मुलाक़ात नहीं हो पा रही थी, तो एक दिन उनके मित्र से मैंने पूछा – “आज कल देव नहीं दिख रहें हैं !”

तो उनके मित्र ने कहा – “ क्या बताएं ? देव अपना घर-बार छोड़ कर नागपुर के किसी आश्रम में रहने लगे हैं।


मैं आज तक नहीं समझ पाया कि इतना ज़िंदा-दिल, सकारात्मक सोच वाला इंसान और भरपूर आनंद के साथ जीवन जीने वाला व्यक्ति, इस उम्र में संन्यास कैसे ले सकता है ? यह घटना मेरे लिए सदमे से कम नहीं थी। 

चित्र http://www.mumbai77.com/ से साभार। 
- © राकेश कुमार श्रीवास्तव "राही"








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